डॉ. मनीषा पंडित
पारिवारिक कर्तव्यों में उलझी हुई अपने शोध कार्य की उपेक्षा करते हुए जब मेरे गाइड ने मुझे देखा तो पतिदेव से कहा कि निर्धारित समय में ये अपना शोध ग्रंथ जमा नहीं कर पायेगी, मैं गर्भवती थी तो स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता था ।पतिदेव ने तंज कसा कि तुम कुछ भी नहीं कर सकती हो तुम्हारी दुनिया बस घर गृहस्थी तक ही सीमित है इसी कार्य के लिए तुम्हारा जन्म हुआ है !!
पतिदेव तो ऑफिस के लिए निकल लिए ।मैंने सारी किताबें उठाई,इनके शब्द दिमाग में तूफान मचा रहे थे ।मेरी तबीयत अब ठीक हो चुकी थी। मैं जुट गई अपने कार्य में ….
जब तक यह ऑफिस से वापस आते तब तक मेरा अध्ययन और लेखन अनवरत जारी रहता …..एक एक अध्याय के रजिस्टर तैयार करके गुरुदेव डॉ.श्री रामकृष्ण गुप्त जी को देती जाती उसके बाद टाइपिंग के लिए देना वहां हुई त्रुटियों में संशोधन के बाद प्रिंट निकलवा कर पुनः गुरुदेव को दिखाना…. गर्भावस्था में भी मैं सारी भागदौड़ करती रही ।शोध ग्रंथ की प्रतियां समय से मैंने जमा कर दी थीं…..
कुछ समय बाद छोटे पुत्र का जन्म भी हो गया… बेटा घुटने के बल चलना सीख गया था ……पी .एच.डी. अवार्ड होने का समय भी आ गया.. इंटरव्यू के लिए जोधपुर से पर्यवेक्षक के रुप में डॉ. चारण जी आए…मेरे साथ चार शोधार्थी और थे पर इंटरव्यू में सबसे ज्यादा प्रश्न मुझसे ही पूछे गए…उन्होंने प्रसन्न होकर कहा कि अपने गाइड के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लो, इसके बाद मेरे पति देव जब उनसे मिले तो उन्होंने मेरी बहुत प्रशंसा की तथा ग्वालियर किला देखने की इच्छा प्रकट की …. रात्रि में उन्हें वापस भी जाना था किला मेरे घर के पास ही है तो इन्होंने नाश्ता तैयार करने को कह कर मेरे गाइड तथा उनके साथ आए सभी लोगों को किला घुमाने ले गए ।
मैंने जल्दी-जल्दी ब्रेडरोल और पकोड़े की तैयारी की ,वापसी में जैसे ही मैंने नाश्ता लगाया टोमेटो सॉस की बोतल गिर गई उस पर मेरा पैर पड़ते ही पैर कट गया ….खून बहुत तेजी से बहने लगा मैंने पट्टी बांधी पर नाश्ता सर्व कर रही थी तो खून बंद ही नहीं हो रहा था जब गुरुदेव की नजर जमीन में गिरते खून पर पड़ी तो वह तुरंत किचन में आए उन्होंने कहा कि रूमाल गीला करके तुरंत बांधों।मैं भी अपने आंसुओं को कब तक संभालती? बोले बेटा !घबराओ नहीं ऐसे ही कभी-कभी होता है ,कढ़ाई में पकौड़े पड़े हुए थे ,बार-बार पैर देखना फिर साबुन से हाथ धो कर पकौड़े निकालना ….परोसने जाना…
जैसे असली इम्तिहान यही था ।चारण साहब पकोड़ों की तारीफ कर चले गए ।मैंने फिटकरी पीसकर घाव में डाली …..पतिदेव जब उन्हें स्टेशन छोड़कर आए तब उन्हें पता चला कि घाव तो बहुत गहरा है ,तब वो बोले,”एक समय में कितने इम्तिहान तुम्हारे चलते हैं?”
मेरे जीवन संस्मरण से………..
साभार ( लेख एवं फोटो) –
गोपालदास नीरज साहित्य संस्थान समूह फेसबुक पेज