सोचा था लिखूं तुम्हारे जन्मदिन पर कोई कविता
लेकिन लेखा जोखा अपना कर डाला.
इंचीटेप से नाप डाली लंबाई चौड़ाई वुजूद और ज़मीर की गहराई
जिस्म बचपन बुढ़ापे और जवानी में सफ़र पर रहता है… उम्र के बहाने
देखता हूं चेहरा अपना हर रोज़ दीवार से चिपके आईने में ..और अपना मुंह भी मन के शीशे में ..
न जाने मुझमें कितने आदमी समा गए हमको छिपाने में..
लुका छिपी करते हैं..
भागते फिरते हैं..
हम ठिठक कर कभी कबार ही सवाल करते हैं..
और फिर चुरा लेते हैं नज़रें सबसे नहीं केवल अपने आप से
5:15 am/ 11-2-23