द्वारा- मोतियाबिंद डाॅन
प्रभात उप्रेती (लेखक शिक्षाविद् हैं)
जब कुत्ता, कुर्सी मुझे आदमी और आदमी कुत्ता, कुर्सी नजर आने लगा तो हुआ अरे ! ये तो कोई पाॅलिटिकल, दार्शनिक लोचा लगता है। दिखाया तो पता चला नजरों में बुढ़ापे का टैक्स मोतियाबिंद की नजरे इनायत हो गयी है।
कैटरेक्ट का क्या सजीला नाम है! मोतियाबिंद !
हमारा परिवार जरा ज्यादे ही लोकतंत्रीय है, सो बहस मशविरे में, टाॅपिक ’अब क्या किया जाय।’ पर पूरा साल बीत गया।
कभी दिल्ली में, कभी हल्द्वानी में उत्तराखंड के गौरव आई सर्जन डाॅ जोशी, डाॅ मयंक पांग्ती, डाॅ तितियाल को दिखलाया और आखिर में डाॅ मयंक पांग्ती के अस्पताल में ही नयी चमचमाती नजर मिली जो, हूनर और नोटों की चमक, दोनों शामिल थी।
जाड़ों में ऑपरेशन का अपना मजा है। मुझ अलीत के लिए तो यह मजे थे। न नहाना, न मुंह धोना, और आने वाले जल संकट के लिए प्रैक्टिस भी हो ली। और मुंह न धोने वाला शेर भी बन लिया।
फिर काले चश्मे ने तो कहर ढा दिया। वाह मेरी चाल-ढाल और शान ! मैं बन गया उत्तराखंड का डाॅन। वेश-भूषा शख्सियत, किरदार बदल देती है।
अब डाॅन बनने का तो मुझमें टैलेंट नहीं। असल डाॅन ही तो चुनाव कराते हैं। उनके खनन-मनन से देश चलता है।
पहले के डाॅन सुशील होते थे। यानी काटने से पहले पुचकारते थे , डायलॉग मारते थे। एक डाॅन ने मेरे द्वारा उसके लिए कुछ सार्वजनिक कहने पर खुली बजार में सबको सुना कर कहा, गुरूजी ! जितना पढ़ाना हो क्लास में ही पढ़ा लिया करो, बाजार में बोर्ड मत लगाना।
एक डाॅन पर किसी पत्रकार ने पिठौरागढ में कुछ लिख दिया। डाॅन के गुर्गे कार्यालय में आये बोले, बोलो कहां दफन, जलना है रंधौला या फिर रामगंगा घाट!
आज कल तो उनके किसी शार्प-शूटर की पिस्टल सीधे धांय करती है ओैर फिर कोई नया गांधी आजाद फना हो जाता है।
मैं तो यदा-कदा कुछ कह जाता हूं फिर पछताता हूं। भागता फिरता हूं। पर कहता जरूर हूं जरूरी बातें।
फिर यह ख्याले गुजर याद आया, साथ में ये विचार लाया कि भक्ति में, शक्ति है पर विचारों की अंधभक्ति हिटलर, स्टेलिन, किम, पुतिन से सनकी पैदा करती है तो कंडीशनिंग विचार लेफ्ट, राइट, खिड़की बंद धर्म जब इस्तेमाल होने लगते है मोतियाबिंद बन कर नजर धुंधली कर देते हैं।
लोकतंत्र, राजनैतिक से ज्यादा मानसिक है। अंदर तो सामंतवादी झंडा लहरा रहा है। लाइफ के फंडामेंटेल नहीं जाने, चले लोकतंत्र मनाने।
प्रशासक, नेता ज्यादेतर इसी मोतियाबिंद के बीमार होते हैं और दुनिया, नेचर, धरती को तबाह करते हैं। और इनके पैरोकार कहते हैं, जलवायु परिवर्तन हो रहा है, हिमालय पिघल रहा है, सब दरक रहा है तैयार रहना मरने के लिए।
लोकतंत्र में मन की बात से ज्यादा, जन की बात ज्यादे मायने रखती है। शासक शासित को चार्ज हरदम होना पड़ता है। यहां तो बस सत्ता की लाठी ही चार्ज रहती है।
जरूरत है इस मोतियाबिंद के ऑपरेशन के लिए कुशल सर्जनों की।
असल लोकतंत्र में सम्यक दृष्टि, शासक, शासित दोनों में पंछी-वृक्ष संबंध होता है। दोनों एक दूसरे के संरक्षक होते हैं। साफ नजर, साफ दायित्व।
मैं सुबह घूमते हुए कुछ देर एक पैरापेट पर बैठ कर बिल्डिंग्स, खोद- खाद से बचे नेचर से गुफ्तगू, गपशप करता हूं। दोनों एक दूसरे का हालचाल पूछ लेते हैं। एक मजदूर जी भी दातून करते आते हैं और उसी पैरापेट में पांव रख, दातून करते, सकून एक पल लेते हैं । एक बार मैंने देखा वह यह सकून ले रहे हैं। मैं उस दिन पैरापेट में न बैठा, उनके सकून को तनिक भी छूए बिना। मजदूर भाई भी समझ गये। और एक दिन मैं भीं बैठा था तो वह भी आये। मुझे बैठा देख वह मुड़ गये। और मुड़ते मुड़ते मुस्कान फेंक गये। जिसे मैंने कैच कर लिया। उनकी उस मुस्कान में कोई एहसासे कमतरी न थी, लोकतंत्रीय नजर थी जिसमें एक दूसरे के सकून के लिए सम्मान था।
मोतियाबिंद वाला लोकतंत्र तो ’असफल प्रेम’ की सफल कहानी’ सा है जिसमें प्रेमी की प्रेमिका की शादी नहीं होती, वह मामा बन जाता है।
ओह! आप मुस्कुरा रहे हैं!
तो इस पर शायरों से माफी मांगते ये अनगढ़ शेर नजर है।
मुस्कुराने की तो कोई वजह न थी
फिर भी मुस्कुराये जा रहे हैं
वल्लाह ! ये क्या सितम! ए जालिम!
हम पे ढाये जा रहे हैं।
Photo -Apoorva Pandey
छायाकार द्वारा… सरल, पर तेज नजर के मालिक अपूर्व पांडे