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नीरज खुद ही प्रेम शब्दकोश

रंजना श्रुति

Photo – Social Media

श्री गोपाल दास नीरज मुझे प्रतीत होता है खुद में ही प्रेम के शब्दकोश थे । प्रेम की प्रतिलिपि में लिखित एक महाकाव्य थे । अनगिनत रचनाएं लिखी उन्होंने बल्कि यूं कहूं कि साहित्य की प्रति विधा में लिखा उन्होंने । जीवन के सभी रूप पर उनकी कलम चली । जो देखा अपनी रचनाओं में व्यक्त कर दिया।
मैं तो मानती हूं उन्होंने खुद की खातिर कुछ नहीं रखा । प्रायः लोग सब छोड़कर जाते हैं दुनिया से किंतु गुरुदेव दे कर गए ।
कठिन से कठिन समय में भी कभी समझौता नहीं किया।
पद्मश्री , पद्मभूषण , यशभारती जैसे पुरस्कारों से सम्मानित कवि प्रेम को जीवनपर्यंत लिखते रहे , प्रेम को गाते गाते स्वयं ही प्रेम के खंड काव्य बन गए।

” उन्होंने कहा कि जब केवल लिखने के लिए लिखा जाता है तो जो कुछ भी लिखा जाता है वह गद्य कहलाता है किंतु जब लिखे बिना रहा न जाए , तब जो लिखा जाता है वह है कविता । मेरे जीवन में कविता लिखी नहीं गई है , खुद लिख लिख गई है । ऐसे ही जैसे पहाड़ों पर निर्झर और फूलों पर ओस की कहानी । जिस प्रकार जल जल कर बुझ जाना दीपक की विवशता है , उसी प्रकार गा गाकर चुप हो जाना मेरी विवशता है। “

नीरज जी मूलतः गीतकार ही थे । जो भी लिखा लयात्मकता से भरपूर लिखा ।
उन्होंने प्रेम गीत लिखे , प्रेयसी को संबोधित कर गीत लिखे , संपूर्ण मानवता के दुःख दर्द को रेखांकित करने वाले विद्रोही गीत भी लिखे ।
यथा :
” जन्म मिथ्या है
क्योंकि उस पर
मृत्यु का प्रश्नचिह्न है

पीढ़ियां बदल गईं किंतु उनके गीतों को अपनी आत्मा में बसाने वाले उन्हें आज भी बड़े प्यार से सुनते हैं । भारत ही नहीं सात समुंदर पार बैठे लोग भी उनके गीतों के कारवां को अपने दिल में बसाए रहते हैं ।
ऐसे कवियों का अवसान कभी नहीं होता । ऐसे शब्द पुरुष के महा प्रयाण को लोग सदियों तक अपनी रूह में वजूद की तरह बसाए रखते हैं ।
विनम्र श्रद्धांजलि सहित प्रस्तुत कर रही हूं उनका एक गीत :……

हम तो मस्त फकीर, हमारा कोई नहीं ठिकाना रे।
जैसा अपना आना प्यारे, वैसा अपना जाना रे।

रामघाट पर सुबह गुजारी
प्रेमघाट पर रात कटी
बिना छावनी बिना छपरिया
अपनी हर बरसात कटी
देखे कितने महल दुमहले, उनमें ठहरा तो समझा
कोई घर हो, भीतर से तो हर घर है वीराना रे।

औरों का धन सोना चांदी
अपना धन तो प्यार रहा
दिल से जो दिल का होता है
वो अपना व्यापार रहा
हानि लाभ की वो सोचें, जिनकी मंजिल धन दौलत हो!
हमें सुबह की ओस सरीखा लगा नफ़ा-नुकसाना रे।

कांटे फूल मिले जितने भी
स्वीकारे पूरे मन से
मान और अपमान हमें सब
दौर लगे पागलपन के
कौन गरीबा कौन अमीरा हमने सोचा नहीं कभी
सबका एक ठिकान लेकिन अलग अलग है जाना रे।

सबसे पीछे रहकर भी हम
सबसे आगे रहे सदा
बड़े बड़े आघात समय के
बड़े मजे से सहे सदा!
दुनिया की चालों से बिल्कुल, उलटी अपनी चाल रही
जो सबका सिरहाना है रे! वो अपना पैताना रे!

साभार-रंजना श्रुति जी की फेस बुक वॉल से

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