प्रकृति से खिलवाड़ आधुनिकता और विकास की अंधी दौड़
पूरी मनुष्यता ही सिर्फ प्रकृति का दोहन करने में लगी है

प्रकृति से खिलवाड़ आधुनिकता और विकास की अंधी दौड़

रीना त्रिपाठी

प्रकृति से खिलवाड़:भारत की इस धरती पर मौजूद समस्त जीवधारियों में केवल हम मनुष्य ही है जो कि विवेकशील प्राणी कहा जाता है और हम विवेकशील ही प्रकृति के लिए असंतुलन की स्थिति उत्पन्न करते है। अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए विकास के नाम पर प्रकृति की अनमोल धरोहर पेड़ों को काट देते हैं अपनी भूख मिटाने के लिए जानवरों को मार कर खा जाते हैं।

प्रकृति से खिलवाड़ कौन है जिम्मेदार

पर्यावरण संरक्षण की बात तो बहुत दूर है वर्तमान पर्यावरण को अपनी सुविधा के अनुसार इस्तेमाल करना चाहते हैं।
हम सबको गर्मी में नैनीताल , मसूरी और शिमला तो चाहिए पर हम दस पेड़ भी अपने पूरे जीवन में लगाकर उन्हें बड़ा नहीं करते है हां काट जरूर देते हैं। एक व्यक्ति की बात होती तो शायद पृथ्वी भी सब्र कर लेती यहां तो पुरी की पूरी मनुष्यता ही सिर्फ प्रकृति का दोहन करने में लगी है, दोहन कुछ अच्छा शब्द है प्रकृति को खत्म करने में लगी है ।आज हमारी प्रकृति खून के आंसू रो रही है कि काश उसने मनुष्य को विवेकशील ना बनाया होता ।

आज यदि आधुनिकता वैश्वीकरण और खुद को सभ्य दिखाने की होड़ में प्रकृति से खिलवाड़ ना होता तो शायद इसमें रहने वाले फल-फूल पेड़–पौधे और जानवर सुरक्षित रहते हैं। पृथ्वी का अपना पर्यावरण तंत्र है उसी प्रकार हर देश की भूमि का अपना पर्यावरण तंत्र और सभी देशों की पारिस्थितिकी /ऊर्जा/ ऊष्मा के अन्य कारक होते हैं सभी का अपना जीव मंडल होता है और इसमें संतुलन स्थापित करना बहुत ही आवश्यक है ।आज 21वीं शताब्दी के चरम में पहुंचे हम मनुष्य विकास कि इस अंधी दौड़ में कोरोना जैसी महामारी के आने पर मनुष्यता को खोने के खून के आंसू रोते हैं पर हम यह भूल जाते हैं कि हमने ही यहां के पेड़ काटे ,यहां की नदियों का दोहन किया ,यहां के समुद्र को गंदा किया, यहां के हवा को प्रदूषित किया, पूरी पृथ्वी को पूरी अपने हिस्से में ई धरती को कूड़े का ढेर बना दिया। यदि आज हमारा दाम आज घुट रहा है तो इसका कारण हम स्वयं है। एक आपदा के बाद दूसरी आपदा और महामारी के आने का इंतजार करते हम मनुष्य, वाकई हम कितने ही सभ्य क्यों न हो जाए पर प्रकृति के प्रकोप के आगे सर विकास और सारी सभ्यता शून्य सिद्ध हो जाती है उसे दिन हमें यह एहसास होता है कि हम मनुष्य प्रकृति की इस सजा के काबिल और हकदार हैं।

धरती पर जनसंख्या का बोझ कम करना होगा

आज अरबों की जनसंख्या वाले इस देश में इतनी बड़ी आबादी के लिए भोजन बनाने हेतु प्रतिदिन अपेक्षित संसाधनों की व्यवस्था एवं इससे उत्पन्न सकल ऊष्मा का परिमाण ही बहुत ज्यादा है। हमें सांस लेने के लिए अपने उदर की पूर्ति के लिए अपने अंदर उर्जा के संचार के लिए कल पुर्जों बड़े-बड़े उद्योगों और मशीनों की जरूरत नहीं है हमें जरूरत है अनाज की/प्राकृतिक संसाधनों की.. जो इसी पृथ्वी के सीने को चीरकर हम प्राप्त करते हैं। जीवन को चलाने के लिए हवा की जो इसी प्रकृति में पौधों के द्वारा छोड़ी गई प्रकाश संश्लेषण की क्रिया के द्वारा ऑक्सीजन के रूप में प्राप्त करते हैं आवश्यकता है पानी की जो यही के पहाड़ों से निकली हुई नदियों झीलों और झरनों से प्राप्त होता है और यदि इससे आगे बढ़े तो इसी पृथ्वी के सीने में छेद करके अत्याधुनिक तकनीक के द्वारा निकाला जाता है। अच्छी फसल उगाने के लिए खतरनाक खाद्य और कीटनाशकों का प्रयोग कर प्राकृतिक ऊर्जा हस्तांतरण के तंत्र को तो हमने बिगाड़ ही दिया है जैविक तंत्र आज पूरी तरह ध्वस्त होने के कगार में है। नदी, तालाब, पोखर खत्म होने को है पानी में पाई जाने वाली बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड का उच्च स्तर है वहां पे जाने वाले जीव जंतु सांस लेने को भी तरस रहे हैं। हवा में ऑक्सीजन का स्तर लगातार कम हो रहा है क्योंकि पेड़ नहीं है और हमने हवा को प्रदूषित करने के लिए लाखों उपकरण तैयार कर रखें ।

हमारे देश के कई राज्य पानी की किल्लत को झेल रहे हैं यह आप सबको पता है पानी अब बोतलों में कैद हो गया है आरो के फिल्टर से छान कर हम खुद के लिए तो स्वच्छ जल उपलब्ध होने का झूठ दबा कर लेते हैं पर यही हाल रहा बढ़ती जनसंख्या का दबाव और प्राकृतिक संसाधनों में पानी की कमी इसी प्रकार जारी रही तो वह दिन भी दूर नहीं जब पानी कैप्सूल के रूप में हमें मिलेगा।
जनसंख्या का बढ़ता दबाव, सीमित संसाधनों की उपलब्धता प्राकृतिक दोहन की एक सीमा आज मनुष्य को विवश करती है कि वह समझे कि यदि उसे आने वाली पीढियां के लिए हवा पानी और भजन इस प्राकृतिक से लेना है तो सस्टेनेबल डेवलपमेंट या अवधारणात्म विकास की अवधारणा को समझना ही होगा । विकास की अंधी दौड़ को थोड़ा रुक कर ,थोड़ा भावनाओं युक्त होकर ,थोड़ा दूसरों की चिंता करके पेड़ों को मरने से बचना होगा, सबसे अहम है आज जनसंख्या नियंत्रित किया जाना अत्यंत अपरिहार्य है।

वृक्षारोपण की बात केवल फैशन तक

आज पेड़ लगाने की बात, भाषण, कागज, सोशल मीडिया तक सिमट के रह जाती है। पर्यावरण दिवस पर यदि पेड़ लगाए भी जाते हैं तो करोड़ों की संख्या में जो सिर्फ रिकॉर्ड बनाने के लिए या आंकड़ों के लिए तो अच्छा लगता है पर उनमें से कितने पेड़ एक साल तक भी जीवित रहते हैं यह देखने वाला कोई नहीं। इतने पेड़ सोशल मीडिया और फेसबुक ट्विटर में दिखाने के लिए लगा दिए जाते हैं बहुधा तो स्थान का भी अभाव हो जाता है।आदमी कहाँ पेड़ लगाये? यह एक दिन पर्यावरण संरक्षण के नाम पर तय कर लिया जाता है ।किसी भी सरकार की वन्य जीव संरक्षण या कहें पेड़ों को बिना कटे विकास कैसे किया जाए इसकी कोई योजना नहीं है हजारों साल पुराने पेड़ सड़क के चौड़ीकरण हाईवे या विभिन्न प्रकार के रास्तों के निर्माण के लिए काट दिए जाते हैं रोज ही लाखों की संख्या में। आम आदमी को कब तक दोष दिया जाएगा दोषी तो वह नीति निर्माता है जो अरबों रुपए का बजट पर्यावरण संरक्षण के नाम पर जारी तो करते हैं पर हर वर्ष वह कितना हकीकत में खर्च होता है, जमीनी हकीकत क्या है यह आप और हम सभी जानते हैं ।

पर्यावरण आधारित विकास की परिकल्पना रखनी होगी

काश हमारी सरकारों ने कोई आधारभूत संरचना व योजना तैयार की होती तो आज यह देश जहां मौसम की विविधता पाई जाती है सर्दी गर्मी और बरसात हर प्रकार की विविधता है प्रकृति शांति और सुकून है। आज हम कभी ज्यादा गर्मी पड़ने का डर कभी ज्यादा सर्दी पढ़ने का डर ,तो कभी ज्यादा बरसात होने का डर और इस डर का निदान सिर्फ एक है कि हमारे पास वृक्ष , पेड़ पौधों की संख्या लगातार कम होती जा रही है जो इन सब परिस्थितियों से मनुष्यता की रक्षा कर सके। आज हम अपने बच्चों को डायनासोर की कहानी सुनाते हैं कि एक विशाल प्राणी इस पृथ्वी पर रहा करता था पर आज उसका अस्तित्व नहीं।

काश हमारी संवेदनशीलता जाग जाती,हमारी विभिन्न संस्थाएं हैं, जो दूरदर्शिता का परिचय नहीं देती हैं। उदाहरण के लिए सड़क बनाने वाली इकाई सड़क को दोनों तरफ चौड़ा करती है, जिससे दोनों तरफ के परिपक्व एवं पुराने पेड़ खत्म हो जाते हैं आजादी के इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी हम अत्याधुनिकता की बातें तो करते हैं पर क्या हमारे पास ऐसे संयंत्र और टेक्नोलॉजी नहीं है कि हम एक पेड़ को जड़ समेत उस स्थान से उठाकर दूसरे स्थान पर प्रतिस्थापित कर सकें, जिससे पेड़ की क्षति भी ना हो ,उसमें रहने वाले जीव जंतु भी सुरक्षित रह सके और पर्यावरण भी संरक्षित रह सके। हमारे द्वारा छोड़ा गया प्रदूषित गंदा जल पवित्र नदियों और समुद्र को प्रदूषित न करता।

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विकास की बलि वेदी पर आहत होने वाली मेरी प्रकृति और उसके हरे-भरे पेड़, उनमें से 90% से ज्यादा बच सकते थे, बस जरूरत थी संस्थाओं की, सरकारों की और हम मनुष्यों की संवेदनशीलता के जाग्रत होने की। अगर हम जागरूक न हुए तो एक और थार से भी बड़ा रेगिस्तान आने वाली पीढियां का अपनी शुष्कता और वीरानेपन के साथ दम घोटने के लिए तैयार खड़ा है।

आइए मिलकर पर्यावरण संरक्षण के नाम पर खानापूर्ति, कागजी कार्रवाई और सोशल मीडिया के आगे बढ़कर अपनी सरकारों को मजबूर करें कि वह कुछ तो नीतिगत फैसला ले? सिर्फ गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में अपना नाम दर्ज करने के लिए करोड़ों पेड़ एक दिन में लगाने का नाटक ना करें ।इन पेड़ों को आने वाले 20 वर्षों में कैसे बड़ा वृक्ष बनाया जा सकता है इसकी विधिवत योजना धरातल पर प्रस्तुत करें। करोड़ों का बजट जो कि पर्यावरण के संरक्षण के लिए जारी किया जाता है वह जमीनी स्तर पर कितना लगाया जाता है इसका जवाब भी हम अपनी नीति निर्माता सरकारों से लें।
पर्यावरण संरक्षित है, प्रकृति खुश है, संसाधनों का दोहन सीमित है, प्रदूषण का स्तर न्यूनतम है ,तभी हमारा अस्तित्व है वरना वह दिन दूर नहीं जब शायद इस पृथ्वी पर यह कहानी सुनाने वाला भी कोई नहीं बचेगा की एक सबसे प्रबुद्ध प्राणी था मनुष्य।

लेखक रीना त्रिपाठी शिक्षाविद और सामाजिक कार्यकर्ता हैं