रामेंद्र सिंह
सबसे पहले देश की सीमाओं की रक्षा करते हुए शहीद होने वाले उन जवानों को विनम्र श्रद्धांजलि, जिनके कारण हम देश की सीमाओं में सुरक्षित हैं।
हम बात कर रहे हैं 1999 की उन कारगिल की ऊंची चोटियों की जहां पाकिस्तान ने हमारी पीठ में छुरा घोंपने का प्रयास किया था। यह पहाड़ियां भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि nh1 डेल्टा जो लद्दाख और सियाचिन को जोड़ता है वह रास्ता इन्ही पहाड़ियों के बीच से गुजरता है। पाकिस्तान की नजर हमेशा इस इलाके पर रही है। बताया जाता है की सेना प्रमुख परवेज मुशर्रफ इस इलाके को अपने कब्जे में लेने के लिए लंबे समय से प्रयासरत थे।बेनीजीर भुट्टो सरकार में भी उन्होंने यह कार्रवाई करने की अनुमति मांगी थी लेकिन तत्कालीन सरकार ने इसकी अनुमति नहीं दी। प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई जब लाहौर में अपने समकक्ष नवाज शरीफ के बुलावे पर बस से रिश्तो की डोर को मजबूत करने के लिए वहां गए थे , तब पाकिस्तान के सेना प्रमुख परवेज मुशर्रफ जिन चौकियों को छोड़कर भारतीय सेना के जवान सर्दी में वापस आ जाते थे उन पर अपने सैनिकों को कब्जे में करने का निर्देश दे रहे थे। यह योजना इतनी गुप्त थी कि सेना के 4 कमांडरों के सिवा पाकिस्तान में भी कोई नहीं जानता था। भारतीय चरवाहों ने जब इसकी सूचना सेना के जवानों को दी तो सेना ने पहले इसकी पुष्टि की और अपने सैनिकों से वहां के हालात जाने। उसके बाद दिल्ली सरकार को इसकी जानकारी दी गयी। सेना के वरिष्ठ अधिकारियों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई को बताया की पाकिस्तान ने हमारी छोड़ी हुई चौकियों पर कब्जा कर लिया है और इसमें पाकिस्तानी सेना पूरी तरह शामिल है।
अटल बिहारी जी इस घटना से आहत भी थे और नाराज भी थे। उन्होंने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को फोन करके कहा मुझे नहीं पता था कि एक तरफ रिस्तो को मजबूत करने की बात हो रही है दूसरी तरफ विश्वासघात किया जा रहा है। उन्होंने इस घटना पर बहुत धैर्य के साथ निर्णय लेते हुए सेना को यह निर्देश दिए कि भारत की भूमि का एक-एक इंच पाकिस्तानी सेना से वापस लिया जाए। प्रधानमंत्री का निर्देश मिलने के बाद भारतीय सेना के जवानों ने कारगिल की पहाड़ियों को अपने नाखूनों से काटकर रास्ता बनाया और वह कर दिखाया जिसकी सपने में भी उम्मीद नहीं थी। गोलिया खाते हुए जवान पाकिस्तानी सैनिकों पर टूट पड़े और भारत माँ की धरती पर उनके नापाक हाथों की हर छाप को उनके लहू से मिटा दी। यह जीत जहां भारतीय नेतृत्व की थी वही 20 से 25 साल के युवा सैनिको की थी, जिन्होंने देश पर सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। लेकिन इस जीत की कीमत देश को चुकानी पड़ी किसी बहन की राखी के धागे टूट गए, तो किसी सुहागन का सिंदूर उजड़ गया, किसी मां का आंचल सुना हो गया, तो किसी के बच्चों के सर से पिता का साया उठ गया।
लेकिन हमारे जेहन में जो नाम रह गए वह देश के शब्दावलियो में स्वर्ण अक्षरों से लिखे गए हैं।
कौन भूल सकता है बत्रा साहब को जिनके नाम से पाकिस्तानी सेना थरथर काँपती थी, कौन भूल सकता है कैप्टन मनोज कुमार पांडे को जिन्होंने लिखा था कि मुझे परमवीर चक्र लेना है, कौन भूल सकता है राजेंद्र यादव को जो अपनी जान की परवाह न करते हुए सबसे ऊंची चोटी को फतेह करने में अपनी भूमिका निभाई थी।
हमने दुनिया को बताया कि हम बुद्ध के लोग हैं, हम बांसुरी बजाने वाले कृष्ण की संताने हैं, लेकिन जरूरत पड़ने पर चक्र सुदर्शन उठाना भी जानते हैं। हम मर्यादा पुरुषोत्तम राम के वंशज हैं, लेकिन हम धनुष की टंकार से दुनिया को अपनी बाहों में समेटने का साहस भी रखते हैं। हम माँ रण चंडी के उपासक हैं और शेर की तरह लड़ना जानते हैं। हम उस भरत की संतान हैं जो शेरों से खेला करता था। मेरे बारे में जो धारणाएं बनाई गई हैं वह मिथक टूट रहे हैं कि हम शांति की बात तो करते हैं पर संयम को कायरता तक नहीं जाने देते है।
“जय हिंद, जय भारतीय सेना”
लेखक दूरदर्शन के वरिष्ठ पत्रकार हैं