Main Slideकहानी कविता

इतने सारे झूठ

चंद्रा मनीष

खुल जाती है पोल जब
बेमानी कोशिशें की जाती है ढकनें की

तब
चेहरे की तबीयत उजड़ जाती है
बिगड़ जाती है रिदम ज़ुबान की

हमें पता है नंगे हो गए हैं हम..

फिर भी
सड़कों पर निकलते हैं बेशर्मी के कपड़े पहनकर..

इतने सारे झूठ ..ओढ़ कर

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