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कमाल के थे कलाम साहेब

मनीष चंद्रा

तिरंगे को भी फक्र हुआ …
कितनी कीमती दौलत से वो लिपटा हुआ था
इतनी मुद्द्त नसीब नहीं वक़त आखिरी में किसी को …
जितनी देर वो रहा साथ
तमाम भीड़ की ख्वाहिश मचल रही थी …
हर आँख दीदार को तड़प रही थी
कोई छूना चाह रहा था …. तो कोई चूमना
ज़मीन ,हवा ,पेड़ ,पत्ते ,पर्वत ,समंदर ….
सबके सीने में दर्द सा था अंदर
जाते तो सब हैं एक दिन मगर अपनी शख्शियत से सब चौकातेे नहीं ….
क्योंकि कलाम रोज़ रोज़ आते नहीं …
जिस तरह — हज़ार बरस नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से चमन में पैदा होता है दीदावर
जिधर से भी देखिये कलाम में कमाल ही नज़र आता है ….
बहुत कम तस्वीरें ऐसी होती हैं …
जो चेहरा एक होते हुए भी -एक साथ …
बचपन ,जवानी और हुनर की कहानी कहती है
पद मुक्त होना रिटायर होना ….
गुम हो जाना और गुप्त हो जाना ….
नेताओं के रंग गुण और स्वाद इस पुजारी की आदत में जंग नहीं लगा पाये
अखबारों में टीवी में सेमिनारों में …
देश- देश और सिर्फ देश के चिंतन शोध और प्रगति
अपनी ज़िंदगी में शायद ही कोई कभी इतने बच्चों से मिल पाया हो ….
क्योंकि वही जानते थे अच्छे बीज से फलदार पेड़ बनाने की सबसे बेहतर तकनीक
आज समंदर से स्याही माँग भी ली जाए … तो भी कलाम को बयां करने में नाकाफी ही गुज़रेगी
वो खाली हाँथ आये थे वो खाली हाँथ गए भी …
मगर तरक़्क़ी की बारूद आने वाली नस्लों में भर कर गयें ..
मिसाइल बना के गए
मशाल जला के गए
मिसाल बन के गए
जन्नत भी मन्नत हज़ार करती है ….
ऐसे ज़ेवर से खुद को सजाने की

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