जीना पड़ता है खुद के लिए

नीता शर्मा

माना खुद को संभालना समझना मुश्किल हो सकता है ,लेकिन नामुमकिन तो नहीं और सच कहूं तो खुद को संभालते संभालते एक वक्त के बाद खुद को खुद की आदत हो जाती है फिर तकलीफों में कोई और नहीं बल्कि सिर्फ हम चाहिए होते हैं हमें और मेरे साथ ऐसा ही कुछ हुआ है।

लोग बोलते हैं मैं खुद को कैसे खुश रख लेती हूं अब उन्हें क्या बताऊं कि मुझे खुद की आदत हो गई है और किसी को खुश रखने से पहले खुद को खुश रखना बहुत जरूरी है…

जीना पड़ता है जब तक टूट कर बिखरती नहीं

ऐसा नहीं है कि मैं अपनी तकलीफों से लड़ती नहीं बल्कि तब तक लड़ती हूं जब तक टूट कर बिखरती नहीं मैं बहुत कोशिश करती हूं अपनी तरफ से हालातो को सुधारने की जितना मेरे हाथ में होता है मैं वहां तक पूरी कोशिश करती हूं लेकिन जो मेरे हाथ में है ही नहीं वह मैं वक्त पर छोड़ देती हूं मुझे पता है वक्त के पास हर घाव का मरहम है खुद को इतना समझती हूं संभालती हूं लेकिन कभी-कभी बहुत थक जाती हूं लेकिन एक उम्मीद हमेशा रहती है एक दिन सब ठीक हो जाएगा….

मैंने बहुत वक्त खुद को कमतर समझने में लगा दिया बस खुद की कमियों को देखते रही मैने बस लोगों की खुशियों के बारे में सोचा लेकिन एक वक्त के बाद मुझे एहसास हुआ कि मैं जिन लोगों को खुश रखने में लगी हूं उन्हें सचमुच मेरे होने ना होने से कोई फर्क नहीं पड़ता…
फिर मैं अपनी खुशियों को पहचान और जिसे मैं अपनी कमी समझती थी वही चीज़ मेरी ताकत के रूप में खुशियों के साथ में उभर कर आई फिर मैं लोगों को नहीं खुद को खुश रखना शुरू कर दिया…

क्या फर्क पड़ता है कि लोग आपको क्या समझते हैं बस आपको खुद को समझना है…

ऑपरेशन थिएटर से जाने से पहले मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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