Dr Kuldeep Kaur
ख्वाहिश नहीं मुझे_
मशहूर होने की,”
आप मुझे पहचानते हो
बस इतना ही काफी है
अच्छे ने अच्छा और_
बुरे ने बुरा जाना मुझे,_
जिसकी जितनी जरूरत थी
उसने उतना ही पहचाना मुझे!
जिन्दगी का फलसफा भी_
कितना अजीब है,_
शामें कटती नहीं और_
साल गुजरते चले जा रहे हैं!
एक अजीब सी_
दौड़’ है ये जिन्दगी
जीत जाओ तो कई_
अपने पीछे छूट जाते हैं और_
हार जाओ तो
अपने ही पीछे छोड़ जाते हैं!
बैठ जाता हूँ_
मिट्टी पे अक्सर,_
मुझे अपनी_
औकात अच्छी लगती है।
मैंने समंदर से_
सीखा है जीने का सलीका,_
चुपचाप से बहना और_
अपनी मौज में रहना।
ऐसा नहीं कि मुझमें
कोई ऐब नहीं है,
पर सच कहती हूँ
मुझमें कोई फरेब नहीं है।
जल जाते हैं मेरे अंदाज से
मेरे दुश्मन,
एक मुद्दत से मैंने
न तो मोहब्बत बदली
और न ही दोस्त बदले हैं।
एक घड़ी खरीदकर
हाथ में क्या बाँध ली,
वक्त पीछे ही
पड़ गया मेरे!
सोचा था घर बनाकर
बैठूँगी सुकून से,
पर घर की जरूरतों ने
मुसाफिर बना डाला मुझे!
सुकून की बात मत कर
ऐ गालिब,
बचपन वाला इतवार
अब नहीं आता!
जीवन की भागदौड़ में
क्यूँ वक्त के साथ रंगत खो जाती है ?
हँसती-खेलती जिन्दगी भी
आम हो जाती है!
एक सबेरा था
जब हँसकर उठते थे हम,
और आज कई बार बिना मुस्कुराए
ही शाम हो जाती है!
कितने दूर निकल गए
रिश्तों को निभाते-निभाते,
खुद को खो दिया हमने
अपनों को पाते-पाते।
लोग कहते हैं
हम मुस्कुराते बहुत हैं,
और हम थक गए
दर्द छुपाते-छुपाते!
खुश हूँ और सबको
खुश रखती हूँ,
लापरवाह हूँ ख़ुद के लिए
मगर सबकी परवाह करती हूँ।
मालूम है
कोई मोल नहीं है मेरा फिर भी
सब अनमोल लोगों से
रिश्ते रखती हूँ