पिथौरागढ़ के डी एल शाह

Prabhat Upreti

उनके बारे में मशहूर था कि वह बनाते कम थे, तोड़ते ज्यादा थे। वह ऐसे वास्तुकार, ऐसे चित्रकार थे जिनकी चित्रकारी न बाजार में आयीं न उन पर किसी को कॉमेंट करने की हिम्मत हुई।
तोड़ते इसलिए थे कि उन्हें अपनी ही रचना एकदम पसंद न आती थी।
वह कहते थे कल्पनाएं प्रभु कृपा से ही आती हैं कभी स्वप्न में, फिर झटके से। किताबी ज्ञान धरा का धरा रह जाता है। जो भी देवी मंदिर उन्होंने बनाए थे उनके बारे में वह कहते थे स्वप्न या अचानक ही कल्पना से आईं। वह कहते थे, आदमी के शरीर का आर्किटैक्ट देखिए कैसे एक स्कैलेटन में सारा चलता फिरता शरीर खड़ा है।
वह अपने में खास थे पिठौरागढ़ के ’डीएल साह’ जिनका देहांत हालिया हो गया।
लखनऊ आर्ट के पढे, वही से आर्किटैक्ट किये साह जी अपनी शर्तो पर जीने वाला जिसे कहते हैं, वह थे।
पिठौरागढ़ में बने अधिकतर मंदिर चाहे वह चंडाक का हो या फिर देवी का, उनका ऋणी है। उनकी शैली में दक्षिण के मंदिरों का प्रभाव है जिसमें पहाड़ी रंग का रूतबा था।
उन्हें उत्तराखंड के खत्म होते लोक व धारे नौलों की फिक्र थी। जिस तरह से सीमेंट लगा कर सारे उत्तराखंड के धारों को खत्म किया है, उससे वह उद्धिग्न रहते थे।
उनकी कल्पनाएं अदभुत थी। उनकी चित्रकारी के शेड खास रवानगी लिये होते थे।
वह अपने में ऐसे थे किसी की नहीं मानते थे। अगर ठन गयी तो ठन गयी और बन गयी तो बन गयी।
मेरे साथ उनकी बन गयी थी। वह, वह जुनूनी थे कि पैसठ साल में उन्होंने दस दिन में कार सीखी और पिठौरागढ़ से लखनऊ अकेले ले गये।
मैं गौरवान्वित हूं कि वह मुझे अपने घर और जहां वह जाते थे, मुझे ले जाते थे। बारीकी से अपने वास्तु, चि़त्रकारी को समझाते थे।
पिठौरागढ के आर्किटैक्ट लाॅरी बेकर को वह अपना गुरू और अपने को उनका एकलव्य मानते थे।
लाॅरी बेकर को वह सदी का महान अर्किटैक्ट मानते थे। वह कहते थे, लाॅरी जी को उनका टीचर बनना पसंद न था वह कहते थे कि यूरोप में अस्सी साल बाद टीचर बनते हैं। उन्हें पहाड़ की फिक्र थी
उन्हें बहुत आक्रोश था कि बेकर जी को बहुत बेशर्मी से भारत सरकार ने जॅैसे सरला देवी को पहाड़ बदर किया था, उनको भी किया गया था।
वह लम्बी बातें हैं। उनके जाने के बाद फिर कोई मंदिर या निर्माण उनकी तरह बनेगा कहना मुश्किल है क्योंकि
अब तराशा ही नहीं जाता कोई पैकर नया
आज भी पत्थर बहुत हैं आज भी आज़र( शिल्पी) बहुत
पर एक अपने में जीने वाले खास आर्किटैक्ट मेंरे अजीज मित्र डी.एल साह जी का जाना एक गहरी पीड़ा है, बहुतों को जो उन्हें जानते भी नहीं थे उनको भी अप्रत्यक्ष पीड़ा होगी पिठौरागढ़ के हर कलात्मक निर्माण में चाहे वह मंदिर चंडाक का हो, या देवी का मंदिर और भी… वो हैं, उनका वजूद है।
’वजूद’ गहरा शब्द है वह हर किसी दुनिया से जाने वाले के नाम पर नहीं लगता।
बहुत कठिन है’ वजूद’।
डी. एल. साह आप इसके असल हकदार थे।
’शब्बाखैर’ साह जी। इसलिए कि यह रात अभी ढली नहीं, सुबह एक आएगी आपके नाम की जाऐगी।

प्रभात उत्प्रेती (लेखक जाने-माने शिक्षाविद हैं)