पहाड़ सा दुख…

  प्रतुल जोशी

पहाड़ सा दुःख
अपने सीने में रखे
पहाड़ के एक गांव की
मध्य वय की युवती ने कहा
“एक गड्ढे से दूसरे गड्ढे में
स्थानांतरित कर दी गयी मैं
शादी से पहले मर गयी थी मां
पिता जजमानी कर चलाते थे
घर का खर्चा
१८ साल हुए शादी के
पति २० साल से है दिल्ली में
अभी भी मिलती है पगार
दस हज़ार के आस पास
भेज देता है पांच हज़ार हर महीने
क्या होता है पांच हज़ार से
आज की मंहगाई में
ढाई हज़ार तो बिजली का
बिल ही हो जाता है
बेटा पढ़ रहा है इंटर में
पति साल में
एक बार आ जाता है गांव
एक डेढ़ महीने, घर में रहकर
फिर चला जाता है दिल्ली
मालिक नहीं देता है
ज़्यादा छुट्टियां
नहीं देखी मैंने दुनिया
पिछले १८ साल से हूं
इसी गांव में
पहले थी बुढ़िया सास
रहती थी
हर दम बीमार
कई साल करी सास की सेवा
सास की सेवा के चलते
नहीं निकल पाई, घर के बाहर
चल सके घर का खर्च
इस लिए करती हूँ, थोड़ा बहुत
अपने खेत में भी काम
हमारी तो जिनगी
कट गयी
इस जंगल में ही सुबह शाम
कैसी यह दुनिया?
कैसा भारत वर्ष?
मुझे नहीं पता “
गौर से देखा मैंने
उसके रूखे, वसा हीन चेहरे को
जिसमें नहीं था
किसी तरह के आकर्षण के लिए
कोई स्कोप
फिर सोचा
कैसे पहाड़ सा दुःख
पहाड़ की महिलाएं
छिपाएं अपने सीने में
काट देती हैं पूरी ज़िंदगी
पहाड़ के एक कोने में

साभार

( श्री प्रतुल जोशी वरिष्ठ पत्रकार,वरिष्ठ आकाशवाणी अधिकारी , कार्यक्रम अधिशासी, साहित्यकार हैं )