नीता
ये बात और है कि कोई,
काफिला नहीं जीता मैंने,
मगर ज़िन्दगी में,
लड़खड़ाना नहीं सीखा..
आयेगी इक दिन,
ये बाज़ी मेरी मुट्ठी में,
क्यूँकि मैने कभी,
पीठ दिखाना नहीं सीखा..
मैं हवा हूं
चाहूं जिस ओर मुड़ जाऊं
इन पर्वतों से टकरा के,
गिर जाना नहीं सीखा..
नहीं चिराग है तो क्या ..
अपना दिल जला लेती हूँ,
फक़त इक फूँक से,
मैंने बुझ जाना नहीं सीखा..
वक़्त अगर शूल है तो,
मैं भी फूल गुलाब हूँ,
इसकी चुभन से मैंने,
बौखलाना नहीं सीखा..
मैं तो ख़ुद इक़ सवेरा हूँ,
चाँद-रातों से जलन कैसी,
यूँ बैचैन हो कर मैंने,
तिलमिलाना नहीं सीखा..
मैं समन्दर हूँ,
बादलों को नमी देती हूँ,
बूँदों से गड्ढों की तरह,
भर जाना नहीं सीखा..
जब मैं नहीं बोलती तो,
मेरा काम बोलता है,
ज़िन्दा हो कर कफ़न में,
मुँह छिपाना नहीं सीखा..
मुझे मालूम नहीं कि मैं,
कल की तारीख में रहूंगी या नहीं,
मगर इस भीड़ में,
मैंने गुम जाना नहीं सीखा..