बासी रोटी

पूजा व्रत गुप्ता

एक उम्र तक मुझे लगता रहा
उसका नाम ही ” मेहतरानी ” है
जैसे एक थी नाइन माईं
एक थी धोबिन अम्मा
एक थी बर्तन वाली
और वो थी ” मेहतरानी “

मेरे बचपन में
डलिया और झाड़ू उठाये
वो रोज़ घर आती
मुँह पर धोती ( साड़ी ) का छोर टिकाये
जोर से चिल्लाती
” राख़ डार देओ “
घरवाले कहते
” छुइयो मत , दूर रहियो “

हम प्लेट भर राख़ लाते
उससे दूर खड़े हो , फेंककर भाग आते…

वो बाहर राख़ के सहारे
हमारी गन्दगी बटोरती…
और अंदर हम

रगड़कर हाथ धोते…

वैसे – जैसे
वो धोती थी
ख़ूब रगड़कर
मोहल्ले का ” सामूहिक नल “
जिससे कभी – कभी नज़र बचाकर
पानी पी लेती …

मेहतरानी फिर शाम को आती
जोर से चिल्लाती
” रोटी दे जइयो “
घरवाले कहते
” छुइयो मत , दूर रहियो “

हम कटोरदान से बासी रोटी लाते
दूर खड़े हो , फेंककर भाग आते…

फ़ेंकी हुयी वो बासी रोटियाँ
उसकी कमाई थी
जो हमारी गंदगी उठाने के बदले हम उसे देते…
धत्ती ( धरती ) में बैठ
वो बड़े सब्र से एक – एक रोटी
पल्लू में बाँधती…
और अंदर हम

रगड़कर हाथ धोते…

अब – जब जूझती हूँ
हर दिन
रोटी के लिए
मुझे मेहतरानी याद आती है…

मैं सोचती हूँ
कितने पाप चढ़ा लिए मैंने
यूँ हाथ धो – धोकर…

और सच कहते थे घरवाले
मुझे उसे छूना नहीं था
बस गले भर लेना था…

साभार- पूजा व्रत गुप्ता की फेसबुक वॉल से

फोटो सोशल मीडिया