चंद्रा मनीष
उस छोटी सी बात से बिफर गए थे ..
जो तुम्हारे वजूद के लिए बड़ी थी..
जब तुम दिल के दरवाज़े से मेरे अंदर दाखिल हुए थे..
उसके बाद से मैंने किसी को आने नहीं दिया…
अपने अंदर से तुमको कभी जाने नहीं दिया..
किस तरह से मैं बताऊं .. चाहता नहीं पूजता हूं तुमको..
तुम जो इस तरह पत्थर के हो गए हो…
ना बोलते हो ना मुस्कुराते हो..
मुझे अपनी शक्ल में नज़र आता है जल्लाद..
जो रोटियों की हसरत में चढ़ा देता है सूली पर किसी ज़िंदा आदिम को..
नीच घिनौना बुरे से बदतर ..
सारी गालियां कम हैं मुझको शापित करने में..
तुम कितना भी छुपा लो .
पल-पल सुलग रहा हूं मैं तुम्हारी आहों से
काश
आसान होता मेरा मर जाना ..
यूं टूट कर बिखर तड़पकर
रिसरिस कर पलपल घुटने में हज़ार मौतें जी रहा हूं..
समझ पा रहा हूं तुम्हारे उस सदमे को …
… जो मैने ही बोया
इसीलिए सब कुछ खोया
तुमने ना सही
वक्त के आईने ने बद्दुआ दी है
ये जो दूरियां बना दी हैं तुमसे
सचमुच तुम्हारी टीस कितनी गहरी थी
तुम्हारी यादें इत्र की वो खाली शीशी है..
जिसकी बची खुशबू
गुरबत का एहसास दिला रही है …